सैर दूसरे दरवेश
इस अरसे में बादशाह ने वफ़ात पायी ,और तख़्त पर मैं बैठा। सल्तनत मिली ,पर वह ख्याल न गया। वज़ीर और अमीरो से मश्वरा किया की सफर बसरे का किया चाहता हु ,तुम अपने काम में मुस्तइद रहो। अगर ज़िन्दगी है तो सफर की उम्र कोताह होती है ,जल्दी फिर आता हु। कोई मेरे जाने पर राज़ी न हुआ। लाचार दिल तो उदास हो रहा था। एक दिन बगैर कहे सुने ,चुपके वज़ीर बा तदबीर को बुला कर ,मुख़्तार वकील मुतलक़ अपना किया ,और सल्तनत काम दारुल मिहम बनाया। फिर मैंने गेरुआ बिस्तर पहन ,फ़क़ीरी भेस बदल कर ,अकेले राह बसरे की ली .थोड़े दिनों में मैं उसकी सरहद में जा पंहुचा। तबसे यह तमाशा देखने लगा ,की जहा रात को जाकर मुक़ाम करता ,नौकर चाकर ,उसी मलका के इस्तेकबाल कर कर ,एक मकान माक़ूल में उतारते ,और जितना लवाजमा ज़ियाफ़त का होता है ,बा खूबी मौजूद करते और खिदमत में दस्ता बादस्ता तमाम रात हाज़िर रहते। दूसरे दिन दूसरी मंज़िल में यही सूरत पेश आती। इस आराम से महीनो की राह तये की ,आखिर बसरे में दाखिल हुआ। वही एक जवान शकील ,खुश लिबास ,नेक खु ,साहब मुरव्वत मेरे पास आया ,निपट शीरे ज़बानी से कहने लगा की फ़क़ीरों का खादिम हु। हमेशा इसी तलाश में रहता हु की जो कोई मुसाफिर ,फ़क़ीर या दुनिया दार ,इस शहर में आये ,मेरे घर में क़दम फरमाए। सिवाए एक मकान के ,यहाँ और बिदेसी के रहने की जगह नहीं है। आप तशरीफ़ ले चलिए और इस मुक़ाम को ज़ीनत बख्शिए और मुझे सरफ़राज़ कीजिये।
फ़क़ीर ने पूछा
: साहब का नाम क्या है ? इस गुम नाम का नाम बेदार बख्त कहते है। उसकी खूबी को देख कर
,ये अजीज़ उसके साथ चला और उसके मकान में गया।
देखा तो एक ईमारत आली लावज़म्म शहाना से तैयार
है। एक दालान में उसने ले जाकर बिठाया
,और गर्म पानी मंगवा कर हाथ पाव धुलवाए ,और दस्तरख्वान बिछवा कर
,मुझ तन तनहा के रु बा रु बकवल ने एक टुरे का तुरा चुन दिया। चार मुश्काब ,एक
में यखनी पुलाव ,दूसरे में कोरमा पुलाव और तीसरे में मुतनजन पुलाव और एक क़ाब ज़र्दे की। और कई तरह के कलिये।
दो प्याज़ा। नरगिसी ,बादामी ,रोगन जोश। और रोटियां कई क़िस्म की। बाकर खानी ,टंकी ,शीर
माल ,गाव ज़ुबान ,पराठे। और कबाब कोफ्ते ,टिक्के
,मुर्ग के ,मलगुबा ,शब् देग,दम ,हलीम ,हरीसा ,समोसे वर्की ,काबुली ,फिरनी ,मलाई,हलवा,
फालूदा ,नमश ,आब शूरा ,मुरब्बा ,आचारदान ,दही
की क़ुल्फ़िया। ये नेमते देख कर रूह भर गयी।
जब एक एक निवाला हर एक से लिया ,पेट भी भर
गया , तब हाथ खाने से खींचा।
वह शख्स हैरत में था की साहब ने क्या खाया ? खाना तो सब अमानत धरा है ,बे तकल्लुफ और नोश जान फरमाइए .मैंने कहा : खाने में शर्म क्या है खुदा तुम्हारा खाना आबाद करे। जो कुछ मेरे पेट में समाया ,सो मैंने खाया .और ज़ायक़े की इसके क्या तारीफ करू ? की अब तक ज़ुबान चाटता हु और जो डकार आती है सो मुअत्तर .लो अब मज़ीद करो। जब दस्तरख्वान उठा ,ज़ेर अनदाज़ का शानि मखमल का बिछा कर ,चिलमिची ,आफताब तलाई लेकर ,बेसन दान में से खुशबू बेसन देकर गर्म पानी से मेरे हाथ धुलाये। फिर पान दान जड़ाऊ में ग्लोरिया सोने के पाखरुटो में बंधी हुई ,और चोखरो में खिलोरिया और चकिनी सुपरिया और लौंग इलाचिया ,रुपयों के वरको में मुढ़ी हुई ला कर रखी। जब मैं पानी पीने को मांगता ,तब सुराही बर्फ में लगी हुई। वह अज़ीज़ बैठा हुआ बाते करता रहा। जब पहर रात गयी ,बोला : अब इस छप्पर खट में की जिसके आगे दल्दा पेश खड़ा है ,आराम कीजिये। फ़क़ीर ने कहा : अये साहब ! हम फ़क़ीर को एक बोरिया ,मर्ग छाला बिस्तर के लिए बहुत है ,यह खुदा ने तुम दुनिया दारो के वास्ते बनाया है।
कहने लगा : यह सब असबाब दरवेशो की खातिर है ,कुछ मेरा माल नहीं है। उसके बजिद होने से ,उन बिछौनो पर की फूलो की सेज से भी नरम थे ,जाकर लेटा। दोनों पट्टियो की तरफ गुलदान थे ,और औद सोज़ और रोशन थे। जिधर करवट लेता ,दिमाग मुअत्तर हो जाता। इस आलम में सो रहा। जब सुबह हुई तो नाश्ते को भी बादाम ,पिस्ते ,अंगूर ,अंजीर ,नाशपाती ,अनार किशमिश ,और मेवे का शरबत ला हाज़िर किया। इसी तौर से तीन दिन रात रहा। चौथे रोज़ मैंने रुखसत मांगी। हाथ जोड़ कर कहने लगा : शायद इस गुनाह गार से साहब की खिदमत गारी में कुछ क़ुसूर हुआ ,की जिसके वजह से तुम्हारा मुकद्दर हुआ ! मैंने हैरान होकर कहा : ब्राये खुदा यह क्या मज़कूर है ?लेकिन मेहमानी की शर्त तीन दिन तक है ,सो मैं रहा ,ज़्यादा रहना खूब नहीं। और अलावा ,यह फ़क़ीर वास्ते सैर के निकला है ,अगर एक ही जगह रह जाये तो मुनासिब नहीं ,इसलिए इजाज़त चाहता है। नहीं तो तुम्हारी खूबिया ऐसी नहीं की जुदा होने को जी चाहे।
तब वह बोला
: जैसी मर्ज़ी लेकिन एक बात याद रखिये की बादशाह ज़ादी के हुज़ूर में जाकर अर्ज़ करू। और
तुम जो जाना चाहते हो ,तो जो कुछ असबाब ओढ़ने
बिछाने का और खाने के बासन रुपये सोने के और जड़ाऊ के ,इस मेहमान खाने में है। यह सब तुम्हारा माल है ,इसके साथ लेजाने की
खातिर जो फरमाओ ,तदबीर की जाये। मैंने कहा
: ला हौल पढ़ो , हम फ़क़ीर न हुए भाट हुए। अगर यही हिर्स दिल में होती ,तो फ़क़ीर कहे को
होते ,दुनिया दारी क्या बुरी थी ? उस अज़ीज़
ने कहा : अगर यह अहवाल मलका सुने तो खुदा जाने मुझे इस खिदमत से निकल कर क्या सुलूक
करे। अगर तुम्हे ऐसी ही बे परवाहि है तो इन
सबको एक कोठरी में अमानत बंद करकर दरवाज़े को
सर्बा बा मुहर कर दो। फिर जो चाहो सो करो।
मैं न क़ुबूल
करता था और वह भी न मानता था ,लाचार यही सलाह ठहरी की सब असबाब को बंद कर कर कुफल
(ताला ) कर दिया। और रुखसत हुआ। इतने में एक
ख्वाजा सिरा अदब ,सीर पर सर और गोष पेच और कमर में बंदी बांधे एक असा (डंडा) सोने का जड़ाऊ हाथ में और साथ
उसके कई खिदमत गार माक़ूल ओहदा लिए हुए ,इस शान व शौकत से मेरे नज़दीक आया। ऐसी ऐसी मैहर बांगी ,और नरमी
से गुफ्तुगू करने लगा की जिसका बयां नहीं कर
सकता। फिर बोला की अये मिया ! अगर तवज्जह और कर्म कर कर इस मुश्ताक़ गरीब खाने को अपने क़दम की बरकत से रौनक बख्शे ,तो बंदा नवाज़ी और गरीब परवरी
से छुपी नहीं। शायद शहज़ादी सुने की कोई मुसाफिर
यहाँ आया था ,उसकी खातिर दारी किसी ने न की वह युही चला गया ,इस वास्ते अल्लाह आलम मुझ पर क्या आफत लाये ,और कैसी क़यामत उठाये ,बल्कि हर्फ़
ज़िन्दगी पर है। मैंने इन बातो को न माना तब
ख़्वाह मखाह मन्नते करके ,मेरे लिए और एक हवेली
में ले गया। उसी पहले मेज़बान की मानिंद तीन दिन रात दोनों वक़्त वैसे ही खाने ,और सुबह और तीसरे पहर शरबत और मेवे खिलाये।
और फर्श फरोश और असबाब जो कुछ वहा था ,मुझसे
कहने लगा की इन सबके तुम मालिक मुख़्तार हो ,जो चाहो सो करो।
मैं यह बाते सुन कर हैरान हुआ ,और चाहा किसी न किसी तरह यहाँ से रुखसत होकर भाग जाउ। मेरे बशरे को वह देख कर वह माहल्ली बोला : ए खुदा के बंदे ! जो तेरा मतलब या आरज़ू हो ,सो मुझसे कह ,तू हुज़ूर मलका के जाकर अर्ज़ करू। मैंने कहा :मैं फ़क़ीरी के लिबास में दुनिया का माल क्या मांगू। की तुम बगैर मांगे देते हो ,और मैं इंकार करता हु। तब वह कहने लगा की हिर्स दुनिया की किसी के जी से नहीं गयी ,चुनांचा किसे कब ने कहते सुना है :
नख बन कटा देखे ,जोगी किन फटा देखे ,लाये तन में मोनी अनबोल देखे ,सेवरा सर झोल देखे ,करत कलोल देखे ,पर्वे न देखे जिनके लोभ नन्हा मन में।
मैंने यह सुन कर जवाब दिया की यह सच है ,पर मैं कुछ नहीं चाहता। अगर फरमाओ तो एक खत सर्बा मुहर अपने मतलब का कुछ लिख कर दू। .जो हुज़ूर मलका के पंहुचा दो बड़ी मेहरबानी होगी। गोया तमाम दुनिया का मुझ को दिया। बोला : : सर व चश्म ,क्या मुज़ायक़ा। मैंने एक खत लिखा ,पहले शुक्र खुदा का फिर अहवाल ,की यह बंदा खुदा का कई रोज़ से इस शहर में वारिद है। और सरकार से सब तरह की खबर गीरी होती है। जैसी खुबिया और नेक नामिया मलका की सुन कर ,इश्तियाक़ देखने का हुआ था। उससे चार चंद पाया ,अब हुज़ूर के अरकान दौलत यु कहते है की जो मतलब और तमन्ना तेरी हो ,सो ज़ाहिर कर। इस वास्ते बे हिजाबाना जो दिल की आरज़ू है ,सो अर्ज़ करता हु की मैं दुनिया के माल मुहताज नहीं ,अपने मुल्क का मैं भी बादशाह हु। फ़क़त यहाँ तलक आना और म्हणत उठाना , आपके इश्तियाक़ के सबब हुआ। जो तन व तनहा इस सूरत से आ पंहुचा हु। अब उम्मीद है की हुज़ूर की तवज्जह से ,यह खाक नशीन मतलब को पहुंचे तो लायक है ,आगे जो मर्ज़ी मुबारक। लेकिन अगर यह इल्तेमास खाक सार का क़ुबूल न होगा ,तो इसी तरह ख़ाक छानता फिरेगा ,और उस जान बे क़रार को आपके इश्क़ में निसार करेगा ,मजनू और फरहाद की मानिंद जंगल में या पहाड़ पर मर रहेगा।
यही खत लिख कर उस खुजे को दिया ,उसने बादशाह ज़ादी तलक
पहुंचाया। बाद एक दम के फिर आया और मेरे तये बुलाया और अपने साथ महल की डेवढ़ी पर ले गया। वहा जाकर देखा
तो एक बूढी सी औरत साहब लियाक़त सुनहरी कुर्सी
पर ,गहना पाता पहने हुए बैठी है ,और कई खिदमत खुजे खिदमत गार ,तकल्लुफ के लिबास
पहने हुए है ,हाथ बांधे हुए सामने खड़े है
,मैं उसे मुख़्तार कार जान कर ,और दीरीना समझ कर दस्त बा सर हुआ। उस मामा ने बहुत मेहरबानी
से सलाम किया और हुक्म किया की आओ बैठो ,खूब हुआ तुम आये ,तुम्ही ने मलका मलका के इश्तियाक़ का खत लिखा था ? मैं शर्म खा कर चुप
हो रहा और सर नीचे करके बैठा।
एक साअत (सन्नाटे ) के बाद बोली की ए जवान ! बादशाह ज़ादी ने सलाम किया है और फ़रमाया है की मुझको खाविंद करने से आयब नहीं। तुमने मेरी दरख्वास्त की लेकिन अपनी बादशाहत का बयां करना ,और इसी फ़क़ीरी में अपने आपको बादशाह समझना ,और उसका गुरूर करना ,निपट बेजा है। इस वास्ते की सब आदमी आपस में हक़ीक़त में एक है ,लेकिन फ़ज़ीलत दीन इस्लाम की अलबत्ता है। और मैं भी एक मुद्दत से शादी करने की आरज़ू मंद हु। और जैसे तुम दौलत दुनिया से बे नियाज़ हो ,मेरे खुद भी खुदा तआला ने इतना माल दिया है की जिसका कुछ हिसाब नहीं। पर एक शर्त है की पहले मेहर अदा करलो ,और मेहर शहज़ादी का ,एक बात है जो तुमसे हो सके .मैंने कहा : मैं सब तरह हाज़िर हु। जान व माल से दरेग नहीं करने का ,वह बात क्या है ? कहो तो मैं सुनु तब उसने कहा : आजके दिन रह जाओ ,कल तुम्हे कह दूंगी ,मैंने ख़ुशी से क़ुबूल किया ,और रुखसत होकर बाहर आया।